Sunday 13 August 2017

बैरियर्स ऑफ कम्युनिकेशन या नॉइज़



  • वो कारण जो कम्युनिकेशन को प्रभावी होने से रोकते हैं, कम्युनिकेशन बैरियर्स कहलाते हैं। 
  • यह फिज़िकल, मैकेनिकल, कल्चरल, लिंग्विस्टक या साइकोलॉजिकल हो सकते हैं। 
  • सभी तरह के बैरियर्स को 'नॉइज़' कहा जाता है जो कि फिज़िक्स का टर्म है।


  • बिज़निस कम्युनिकेशन में ऑर्गनाइजेशनल बैरियर्स होते हैं । 
  • जिनका कारण हैं सबके अलग अलग पद और स्टेटस, अलग स्पेशलाइजेशन्स, और सबके बैठने की अलग जगह होना, अलग लोगों के बीच अलग आपसी सम्बन्ध। 
  • कोई भी कम्युनिकेशन परफेक्ट नहीं होता। नॉइज़ सबमें रहती है। परफेक्ट कम्युनिकेशन केवल स्प्रिचुअल या मिस्टिक लेवल पर होता है जहां वो कम्युनियन बन जाता है। 

1-फिज़िकल बैरियर्स- 4 तरह के हैं: 

1- कम्पीटिंग स्टिम्युलस- जब हीयरिंग के दायरे में ध्यान भटकाने वाली कोई और आवाज़ आ रही हो। जैसे ट्रैफिक का शोर, गाने चलना, किसी और का बात करना वगैरह।

2-एन्वायरनमेन्टल स्ट्रेस- गर्मी, सर्दी, तेज़ धूप या किसी भी और वातावरणीय कारक की वजह से जब मैसेज भेजने या रिसीव करने में प्रॉब्लम हो। 

3-सब्जेक्टिव स्ट्रेस- बीमारी, ड्रग का असर, व्यक्ति की हालत खराब होना वगैरह जिसके कारण सुनने, समझने या कहने में परेशानी हो। 

4-मीडियम की इग्नोरेन्स- जब कम्युनिकेटर या रिसीवर ओरल, रिटिन, ऑडियो, विज़ुअल या ऑडियोविज़ुअल मीडियम को प्रयोग करना या समझना नहीं जानता हो जिसके जरिए कम्युनिकेशन हो रहा है। 


2-साइकोलॉजिकल बैरियर्स
  • सबके अलग 'फ्रेम ऑफ रेफरेन्स/ व्यक्तिगत नज़रिए' के कारण, जो हर इन्सान का अलग और यूनीक होता है। जो हम अपने अनुभवों, संस्कृति, हेरिडिटी के चलते विकसित करते हैं। इन्हें मेन्टल सेट्स भी कहते हैं। 
  • मेन्टल सेट्स हम 'रेफरेन्स ग्रुप्स' यानि उस लोगों के उस समूह के हिसाब से बनाते हैं जो भाषा, संस्कृति, स्टेटस, एजूकेशन, धर्म वगैरह में हमारे जैसे होते हैं।  
  • जैसे-जैसे हम मैच्योर होते हैं हम अपना नज़रिया विस्तृत कर लेते हैं। साइकोलॉजिकल बैरियर्स में प्रमुख हैं-
सेल्फ इमेज- 
हमारे विश्वासों, स्टेटस, सोच, और अपनी तरह से रीएलिटी की व्याख्या करने के कारण बनी इमेज, जिसके चलते हम आसानी से दूसरे पॉइन्ट ऑफ व्यू को स्वीकार नहीं करते। इसी वजह से हर इन्सान एक चीज़ की अलग अलग तरह से व्याख्या करता है, किसी के लिए कुछ सही होता है तो वहीं दूसरे के लिए गलत होता है। 

-हम उन मैसेजेस को स्वीकार करते हैं, याद रखते हैं जो हमारी सेल्फ इमेज के अनुकूल हो, जुड़ते भी ऐसे ही लोगों से हैं और बाकियों को रिजेक्ट कर देते हैं। इसे कम्युनिकेशन सिलेक्टिविटी कहते हैं। 

रेज़िस्टेन्स टू चेन्ज
कार्ल रोजर्स कहते हैं कि बदलाव का रिस्क सबसे डरावना रिस्क होता है। 

-हम अपने कम्फर्ट के अनुसार मेैसेज सुनते हैं, गुनते हैं और बदलाव लाने वाले या नए आइडियाज़ को रिजेक्ट कर देते हैं। (बिज़निस कम्युनिकेशन में यह एक बड़ा फेक्टर है)

- इफेक्टिव कम्युनिकेटर की पहचान है कि वो किसी आइडिया के खिलाफ रेज़िस्टेन्स बनने से पहले ही लोगों के बीच विश्वास का माहौल बनाता है और अपनी बात रखता है। उनकी बातें सुनता है और एक-एक करके सारी समस्याएं, डाउट्स दूर करता है। 

-सुरक्षात्मकता और डर
खुद को जस्टिफाई करने की आदत। जिसके चलते हम अपनी गलतियों को भी रेशनलाइज़ करने की कोशिश करके खुद को सुरक्षा देने की कोशिश करते हैं।  

- ईज़ार्ड और टॉमकिन्स कहते हैं कि डर (इमेज का, गलत समझे जाने का, रेफरेंस ग्रुप से अलग हो जाने का..), वो सबसे महत्वपूर्ण वजह है जो तय करता है कि इन्सान किसी मैसेज को कैसे समझेगा। 

-डर, नर्वसनेस, चिन्ता, 'टनल विज़न' का कारण है। जिसके चलते कम्युनिकेटर/रिसीवर कम्युनिकेशन के केवल उसी पार्ट को ग्रहण करता है जो उसके अनुकूल हो, बाकी की अनदेखी कर देता है। 

-जैसे- इन्टरव्यू देते वक्त किसी कैन्डिडेट की नर्वसनेस या रिजेक्ट हो जाने के डर के कारण वो ठीक से जवाब नहीं दे पाता। व्याख्यान देते समय कई लोग ऑडियन्स को देखकर नर्वस हो जाते हैं और अच्छा परफॉर्म नहीं कर पाते। 


3-लिंग्विस्टिक और कल्चरल बैरियर्स
कम्युनिकेटर और रिसीवर की अलग-अलग भाषा व संस्कृति होने के कारण उत्पन्न बैरियर। कई बार लोग टर्मिनोलॉजी से भरी भाषा नहीं समझ पाते जैसे एक शेयर ब्रोकर अगर सेन्सेक्स का अर्थ समझाना चाहे तो उसकी भाषा बिज़निस टर्मिनोलॉजी से भरी होगी जो सामान्य इन्सान नही समझ पाएगा। 

4- मैकेनिकल बैरियर्स
चैनल या मीडियम की नॉइज़। जैसे रेडियो ट्रांसमिशन में खराबी, टेलीफोन वार्ता के दौरान लाइन में क्रॉस कनेक्शन मिल जाना वगैरह। 











Friday 4 August 2017

कितनी तरह का है कम्युनिकेशन




कम्युनिकेशन मुख्य तौर पर पांच तरह का होता है:

1-इन्ट्रापर्सनल (Intrapersonal) कम्युनिकेशन

यानि किसी इंसान का खुद से कम्युनिकेशन। जैसे ध्यान करना, भगवान की पूजा करना या फ़िर आत्माओं से बात करना, स्वप्न देखना। इसे ट्रांसपर्सनल (transpersonal) कम्युनिकेशन भी कहते हैं।


2-इन्टरपर्सनल कम्युनिकेशन

दो लोगों के बीच आमने-सामने होने वाला कम्युनिकेशन, जो एक ही समय, एक ही जगह पर मौजूद हों और जिनके बीच किसी मशीन (टेलीफोन, कम्प्यूटर) या इंसान की मौजूदगी न हो। सबसे प्रभावी कम्युनिकेशन विधि- जिसमें शब्दों के साथ जेस्चर्स/ बॉडी लेंग्वेज/ हाव-भाव का भी आदान प्रदान होता है, दोनों व्यक्तियों की पांचो इन्द्रिया कम्यूनिकेशन में एक्टिवली भाग लेती है।

लोग हर किसी से इन्टरपर्सनल कम्युनिकेशन करना पसंद नहीं करते। सामान्य तौर पर जिन्हें लोग अच्छे से जानते हैं, विश्वास करते हैं, उन्ही से यह कम्युनिकेशन किया जाता है। क्योंकि इसके ज़रिए ना केवल अनजान लोग आपके दोस्त बनते हैं बल्कि आपकी पर्सनल स्पेस (घर-परिवार) में भी एन्ट्री पा लेते हैं।

 बिज़निस में महत्वपूर्ण हैं इन्टरपर्सनल कम्युनिकेशन
 दो लोग जब पार्टनर बनते हैं या फ़िर एक कस्टमर और एक सेलर हो तो इन्टरपर्सनल कम्युनिकेशन पहले प्रॉफेशनल लेवल से शुरू होता है और कई बार इन्टिमेट लेवल तक पहुंच जाता है। जब लोग आप पर भरोसा करने लगते हैं और इसका फायदा आपको बिजनिस में मिलता है। यहीं वजह है कि ऐसे लोगों को बिजनिस में तरजीह दी जाती है जिनकी कम्युनिकेशन स्किल्स अच्छी हों, जो प्रॉफेशनल लेवल के कम्युनिकेशन में एक ट्रस्ट फैक्टर ला पाएं।

इन्टरपर्सनल कम्युनिकेशन और 'टेरिटोरियल इम्पेरेटिव'
इन्टरपर्सनल कम्युनिकेशन के ज़रिए कई बार चालाक लोग अपनी बातों में सीधे-सादे इन्सानों को फंसा कर उनसे अपना मतलब भी निकालते हैं। इसलिए लोग अपनी पर्सनल स्पेस या प्राइवेसी को गार्ड करते हैं। केवल अपनी सोच, अपने जैसे या अपने परिवार या समुदाय के लोगों को यहां तक एन्ट्री मिलती है। इस स्तर तक हर किसी का आना अलाउड नहीं होता। इन्सान तो इन्सान यहां तक कि पशु-पक्षी भी अपनी इन्टरपर्सनल स्पेस की हिफाज़त करते हैं।

कॉनरेड लॉरेन्ज़ और ़डेसमन्ड मॉरिस की रिसर्च के अनुसार जब कोई बाहरी जन्तु, पशु-पक्षियों की स्पेस में आने की कोशिश करता हैं तो वो हिंसक हो जाते हैं। ऐसा टेरिटोरियल इम्पैरेटिव के कारण होता है - जिसका मतलब हैं अपनी जगह को सुरक्षित रखने के प्रति ऑब्सेस्ड होना। 

जैसे कि हाथी अपने झुण्ड में और शेर अपने परिवार में विचरण करते हैं। किसी भी बाहरी आगमन को असुरक्षित माना जाता है और उसका विरोध किया जाता है। यूरोप के कल्चर में भी बिना इजाज़त किसी के साथ बहुत क्लोज़ होना (उसके घर में जाना) गलत व्यवहार माना जाता है।

यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि हर इन्टरपर्सनल कम्युनिकेशन का इन्टिमेट होना अनिवार्य नहीं है। बहुत से केवल सतही होते हैं, लेकिन यह ज़रूर है कि इन्टरपर्सनल कम्युनिकेशन, दो लोगों के बीच इन्टिमेसी का पहला कदम होता है।

बुद्धिज़्म में इन्टरपर्सनल कम्युनिकेशन को इन्टिमेट लेवल तक ले जाने के लिए चार सामाजिक भावनाओं को होना ज़रूरी माना गया है- मेत्ता ( दयालुता), करुणा, मूर्धिता (सहानुभूति) और उप्पेखा (इक्वेनिमिटी या समभाव)। 

Three Stages of Interpersonal Communication:

फैटिक स्टेज ((Phatic Stage) - बातचीत की शुरुआती, वॉर्मिंग अप या फॉर्मल स्टेज जो हाय, हैलो, हाउ आर यू से शुरू होती है और निर्धारित करती है कि कम्युनिकेशन आगे बढ़ेगा या नहीं। इसके साथ हम हाथ मिलाना, आंखे मिलाना, मुस्कुराना जैसे जैस्चर्स प्रयोग करते हैं। इसमें कोई सीरियस सवाल नहीं पूछे जाते बल्कि जनरल और फॉर्मल बातचीत होती है। इसमें किसी को धोखा देने का स्कोप नहीं क्योंकि इन्टिमेसी इन्वॉल्व नहीं होती। यह स्टेज लोगों के सामाजिक या सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के अनुकूल आकार लेती है।

पर्सनल स्टेज - सोशल गार्ड्स को थोड़ा सा गिराने की स्टेज जहां हम खुद को एक्सपोज़ करने का रिस्क उठाने को तैयार हो जाते हैं और सामने वाले को अपनी टेरिटरी में आने देते हैं। बात पर्सनल मैटर्स, फैमिली, प्रोफेशन, लाइक, डिस्लाइक्स तक पहुंचती है। बिजनिस कम्युनिकेशन बहुत कम बार पर्सनल स्टेज से आगे बढ़ता है और पर्सनल स्टेज तक भी केवल इसलिए पहुंच पाता है क्योंकि इसमें दोनों ही लोगों के शेयर्ड पर्सनल इन्ट्रेस्ट जुड़े होते हैं।

इन्टिमेट स्टेज- यह स्टेज दोस्तों, परिवार और विश्वासपात्रों के लिए रिज़र्व्ड है। अलग-अलग लोगों से, रिश्ते के अनुसार अलग-अलग क्लोज़नेस लेवल होता है। सोशल बैरियर्स गिर जाते हैं और दो लोग आपस में कम्फर्टेबल होकर अपनी बातें शेयर करते हैं। इन्टरपर्सनल कम्युनिकेशन इस मोड में अपनी हाईएस्ट फॉर्म अचीव करता है जहां शब्द नाकाफी होते हैं।

               रॉबर्ट शटर के अनुसार इस स्टेज में कम्युनिकेटर अपने मन की सबसे गहरी बातें भी प्रकट करते हैं। लेकिन यहां तक पहुंचने के लिए दो लोगों के बीच अन्डरस्टेंडिंग, लव और रेस्पेक्ट होना ज़रूरी है।

     
                                   फोकस्ड और अनफोकस्ड इन्टरपर्सनल कम्युनिकेशन

-अनफोकस्ड इन्ट्रेक्शन -  इर्विंग गॉफमेन अपनी किताब बिहेवियर इन पब्लिक प्लेसेज में लिखते हैं कि इन्टरपर्सनल कम्युनिकेशन अधिकतर अनफोकस्ड नेचर का होता है। जब हम कहीं जाते हुए, कहीं खड़े हुए या पब्लिक प्लेसेज  पर 'पीपल वॉचिंग' करते हैं, किसी को देखकर उसके बारे में अनुमान लगाते हैं कि वो कैसा होगा, तो यह अनफोकस्ड कम्युनिकेशन है।

अपने प्री कन्सीव्ड नोशन्स और विश्वासों के आधार पर हम किसी की वेशभूषा, बात करने का तरीका, खड़े होने का तरीका या फिज़िकल फीचर्स से उसकी शिक्षा, सामाजिक स्तर, नेचर या आइडियोलॉजी का अनुमान लगाते हैं। जैसे कुर्ता पायजामा पहने व्यक्ति हमें पारम्परिक लगता है और जीन्स-टीशर्ट पहना व्यक्ति मॉडर्न। इसमें व्यक्ति से बातचीत नहीं होती बल्कि यह कम्युनिकेशन पूरी तरह से हमारी ऑब्ज़र्वेशन और सोच का परिणाम होता है। जहां एक व्यक्ति, बिना दूसरे के जाने,उसके बारे में राय बनाता है।

-फोकस्ड इन्ट्रेक्शन- जब दो लोगों आपस में बात करें (शब्दों, इशारों या बॉडी लेंग्वेज के ज़रिए)। दोनों मैसेज एक्सचेंज करते हैं लेकिन यह नहीं जानते कि सामने वाला उसे कैसे इन्टरप्रेट करेगा।

"अनफोकस्ड कम्युनिकेशन जहां आई कॉन्टेक्ट के बाद ख़त्म हो जाता है, वहीं फोकस्ड इन्ट्रेक्शन आई कॉन्टेक्ट से शुरू होता है। आई कॉन्टेक्ट टूटने का मतलब है कि अब इन्ट्रेक्शन ख़त्म किया जाए। " 


3. ग्रुप कम्युनिकेशन-  

इसमें भी इन्टरपर्सनल वाली सारी क्वालिटिज़ होती हैं, लेकिन पार्टिसिपेन्ट्स दो से ज़्यादा होते हैं। यह ज़्यादा कॉम्प्लेक्स प्रक्रिया भी है। जितना बड़ा ग्रुप, पर्सनल और इन्टिमेट स्टेज की पॉसिबिलिटी उतनी ही कम। ग्रुप अगर बड़ा होता जाता है तो यहां डायलॉग नहीं मोनोलॉग चलने लगता है (वन वे टॉप डाउन कम्युनिकेशन)। जहां इन्टरपर्सनल कम्युनिकेशन में तुरन्त फीडबैक मिल जाता है, यहां ऐसा नहीं है। इफेक्टिव पब्लिक स्पीकिंग की कला यहां काम आती है ताकि आप ग्रुप के हर सदस्य को अपनी बात समझा सकें।

थिएटर, कॉन्फ्रेंस, मेला, राम लीला, हाट, बाज़ार, सब इन्फॉर्मल ग्रुप कम्युनिकेशन में आते हैं। महिलाओं की किटी पार्टी, गॉसिप ग्रुप्स, पुरुषों की क्लब गैदरिंग वगैरह भी ग्रुप कम्युनिकेशन के उदाहरण हैं जो स्टेटस, कारण या एक दूसरे से रिश्ते की समानता पर आयोजित किए जाते हैं। इन्हें माइक्रो ग्रुप्स कहते हैं।

ग्रुप कम्युनिकेशन और फीडबैक-
यहां फीडबैकअत्यधिक ज़रूरी है। फीडबैक, दरअसल साइबरनेटिक्स का टर्म है जिसका अर्थ है मैसेजेस की स्टडी या इफैक्टिव मैसेज कंट्रोल।  जब सोशल इंजीनियरिंग के लिए फीडबैक का प्रयोग किया जाता है तो यह कम्युनकेशन नहीं बल्कि प्रॉपेगेंडा या मेनिपुलेशन कहलाता है। जैसा कि कन्ज़्यूमर एडवर्टाइज़िंग में होता है। जहां कि ग्रुप कम्युनिकेशन से मिले फीडबैक के ज़रिए एडवर्टाइज़िंग को प्रभावी बनाया जाता है।


4-मास कम्युनिकेशन- 

ग्रुप कम्युनिकेशन को जब मास मीडिया टूल्स जैसे कि किताबें, टीवी, रेडियो, सिनेमा, अखबार या इन्टरनेट के ज़रिए किया जाता है, जिससे एक ही संदेश को एक ही समय में (जनरली), अलग-अलग जगहों पर उपस्थित लोगों तक पहुंचाया जा सके,तो वो मास कम्युनिकेशन बन जाता है।
 'दूर से, पर  बहुत लोगों से एक साथ, टेक्नोलॉजी मीडिएटिड कम्युनिकेशन करना'

मास कम्युनिकेशन की प्रक्रिया में मास मीडिया की अहम् भूमिका है।
  डेनियल लर्नर इन्हें मोबिलिटी मल्टिप्लायर्स कहते हैं और विल्बर श्रैम -मैजिक मल्टिप्लायर्स।

भारत में जहां गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों तक इस मास मीडिया की पहुंच नहीं है, वहां फोक थिएटर, कीर्तन, फोक आर्ट जैसे ग्रुप कम्युनिकेशन ही उनके लिए मास कम्युनिकेशन के ज़रिए बनते हैं, जो सस्ते हैं, करीबी हैं और सरलता से उपलब्ध भी।

मीडिया सोशलिस्ट जॉन बी थॉम्पसन इसे मीडिएटिड कासी इन्ट्रेक्टिव कम्युनिकेशन  कहते हैं जिसका मतलब है कि यह बस दिखने भर का इन्ट्रेक्टिव कम्युनिकेशन है पर असल में ऐसा नहीं है। इसमें मैसेज एक स्ट्रक्चर में बनाए और प्रसारित किए जाते हैं। मैसेजेस तैयार करने और मैसेजेस रिसीव किए जाने, का सन्दर्भ अक्सर अलग होता है। यानि दोनों एंड्स के लोगों में काफी फर्क होता है। बनाने वाले को नहीं मालुम कि उसका मैसेज कौन और कैसे रिसीव करेगा साथ ही मास कम्युनिकेशन में रेसिपिएन्ट्स की भूमिका लगभग नगण्य होती है। दोनों के बीच कोई इन्ट्रेक्शन नहीं होता।

5-'मास-लाइन' कम्युनिकेशन-

चाइनीज़ कल्चरल रिवॉल्यूशन के जनक माओ ज़ेडॉन्ग और महात्मा गांधी द्वारा प्रयुक्त कम्युनिकेशन, जिसमें इन दोनों ने खुद का उदाहरण प्रस्तुत करके लोगों को मैसेज दिया। नॉन मैनिपुलेटिव कम्युनिकेशन। लोगों को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए यह कम्युनिकेशन काफी प्रभावी माना जाता है।

5-इन्ट्रेक्टिव कम्युनिकेशन-

नई मीडिया टेक्नोलॉजी जैसे विडियो, सोशल मीडिया, टेलीटेक्स्ट, मोबाइल, टेलीफोन वगैरह के द्वारा किया गया कम्युनिकेशन। पॉइन्ट टू पॉइन्ट कम्युनिकेशन जो इन्टरपर्सनल भी होता है- जैसे कि विडियो चैट, टेलीफोन मैसेजिंग, वॉइस मेल वगैरह, ग्रुप भी -जैसे कि टेली कॉन्फ्रेन्स, विडियो कॉन्फ्रेन्स, सोशल मीडिया मैसेजिंग आदि और मास कम्युनिकेशन भी -जैसे वर्ल्ड वाइड वेब सर्विस जिसके ज़रिए लोग अपनी वेबसाइट्स बना कर अलग-अलग जगह, अलग-अलग लोगों तक एक ही संदेश पहुंचाते हैं।

इन्ट्रेक्टिव कम्युनिकेशन की खासियत है इसकी एसिन्क्रोनिटी, जिसमें मैसेज भेजने और रिसीव करने वाले को एक ही समय में ऑनलाइन होना ज़रूरी नहीं। लोग अपनी सुविधा के हिसाब से मैसेज भेजते हैं और रिसीव करते हैं। जेसे- अभी मेरा मन किया, मैंने वॉट्सएप पर मैसेज भेज दिया। लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि सामने वाला भी मौजूद हो। उसका जब मन करेगा वो तब उस मैसेज को पढ़ लेगा। यहीं एसिन्क्रोनिटी है जो इन्ट्रेक्टिव कम्युनिकेशन की खासियत है।


इनके अलावा भी कम्युनिकेशन को और बहुत से तरीकों से विभाजित किया जाता है जैसे कि वर्बल- नॉन वर्बल, फॉर्मल-नॉन फॉर्मल,  हॉरिज़ोन्टल-वर्टिकल, रिटिन-ओरल वगैरह।

बैरियर्स ऑफ कम्युनिकेशन या नॉइज़

वो कारण जो कम्युनिकेशन को प्रभावी होने से रोकते हैं, कम्युनिकेशन बैरियर्स कहलाते हैं।  यह फिज़िकल, मैकेनिकल, कल्चरल, लिंग्विस्टक या ...